Sunday, 14 July 2024

क्यों लिखें ??

 15th July 2024 | 1:10 am



क्यों लिखें ??



लिखना क्यों है ?? क्या होता अगर मानव जाती लिखने के आविष्कार से वंचित रह जाता ?? लेखन के पहले, क्या कोई पेन अथवा पेंसिल जैसे बनाये गये उपसाधक की आवश्यकता है ?? क्या लेखन, बिना कोई काग़ज़ कलम के हो सकती है ?? पढ़ने और लिखने में क्या रिश्ता  है ?? क्या सारे पढ़े लिखे  आदमी अच्छा लिख सकते है ?? क्या कोई अनपढ़ लिख सकता है  ?? लिखना आर्ट है साइंस ……


सवाल तो सिर्फ़ एक था - क्यों लिखें ?? परंतु इस सवाल के जवाब के निष्कर्ष पर तब तक पहुँचा नही जा सकता है जब तक उपर्युक्त बाक़ी सभी सवालों का ठीक ठीक पचाने वाले जवाब  हमारे सामने नही जाते। संसार में पहला इंसान से दूसरा इंसान, दूसरे से तीसरे और ऐसे ही आज मानव जाति की जनसंख्या 8 Billion की हो गयी  है। जनसंख्या तो केवल एक छोटी सी बात है, आज के आधुनिक काल की गाथा को देखें तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे की यह सब काम बिना समन्वय के असंभव सा है। समन्वय कैसे बनता  है ?? समन्वय का  लेन-देन समझदारी से है, समझदारी का स्रोत हमारा मस्तिष्क है, किससे समझदारी ?? हमसे, हमारे अंदर या दो या उनसे ज़्यादा लोगों के बीच की समझदारी ??  लेकिन क्या दो मस्तिष्क आपस में बात कर सकते हैं ?? हाँ भी और नही भी।हाँइसलिए क्योंकि आदि दैविक एवं आध्यात्मिक बोध में मनुष्य  के पास ऐसी शक्ति के प्रमाण हमें मिलते चले रहें हैं, मिसाल के तौर पे आदि शंकराचार्य, श्री रामकृष्ण परम हंस, नीम करौली बाबा, पश्चिम में - रिचर्ड फ़ेनीमैन, सिग्मुण्ड फ़्रीड जैसे लोग इसकी पुष्टि करते हैं।नाइसलिए क्योंकि आदि भौतिक जीवन में वार्तालाप करने में हमें हमारी इंद्रियों की सहायता अवश्य लेनी पड़ती है। इसमें सबसे ज़्यादा प्रचुर मात्रा में हमारी मुख की भूमिका है। दूसरे नंबर पे आती है हमारी लेखन। इससे हम यह अवश्य ज्ञात कर सकते हैं कि मानव इतिहास मेंलेखनकी भूमिका उतनी ही विशाल रही है जितना की हमारा मानव इतिहास। 


लेखन का ना होना ठीक वैसा है जैसे की मानव का होना, सभ्यता का ना होना; शरीर का होना, प्राण का ना होना; कलम का होना, स्याही का ना होना। इसलिए हम यह निष्कर्ष पे अवश्य पहुँच सकते हैं कि लेखन की क्रिया इतिहास को निरंतर प्रतिबिंबित करती रहती है। 


आमतौर पे दिनचर्या की भाषा में हम यह लगातार सुनते/कहते रहते हैं की हर एक मानव पढ़ा-लिखा होना चाहिए। परंतु पढ़ने अथवा लिखने की क्रिया में पहले क्या आएगा ? यह सार्थक प्रश्न है, काफ़ी सार्थक। मेरे हिसाब से पढ़ना लिखना ठीक उसी तरह है जैसे कि बारिश और नदी, बिना बारिश के नदी सुख जाएगी और बिना नदी के बारिश को एकत्र करना कठिन है। अपितु बिना पढ़े, आप विस्तृत लेख लिख नही सकते और बिना आपके लेख लिखे, आने वाली पीढ़ी को पढ़ने का स्रोत मिल नही सकता। यह दोनों क्रियाएँ रेल की दो पटरी की तरह है। अब हमें यह समझना होगा कि पढ़ने और लिखने का अर्थ केवल आधुनिक आयामों की पूर्ति मात्र नही होना चाहिए जिसका निष्कर्ष सिर्फ़ औद्योगीकरण सहित आर्थिक  कुशलता हासिल करना हो। अपितु प्राचीन काल से चलती रही तरीक़ों पे भी नज़र डालना चाहिए जिसमें  लेखन-पढ़न का पहला और सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य मानव में मनुष्यता पैदा करना और उसके व्यक्तित्व  को समावेशी तरीक़े से निखारने का रहा है  इसमेंश्रुतिऔरस्मृतिकी परंपरा सबसे पहले दिखायी पड़ती है। वेदों के ज्ञाता, जिनमें हमारे महान ऋषि जैसे की कपिल, गौतम, अगस्त, वरूची इत्यादि ने पढ़ने-लिखने को अंत ना मानकर एक ज़रिया समझा जिससे विश्व का कल्याण हो और हमारे मस्तिष्क कि कोशिकायें ब्रह्मांड के अनकहे रहस्यों को समझें। लिखने से ज़्यादा समझना जरुरी है, कागज-कलम वाली लिखने की क्रिया तो समझी हुई बात को संजो के रखना मात्र है। सुदामा बिना लिखे अपनी बात श्री कृष्ण को बता सकते थे एवं शबरी बिना लिखी-पढ़ी प्रभु श्री राम की प्रामाणिक प्रतीक्षा कर सकती थी। इससे यह ज्ञात अवश्य होता है कि किसी को पढ़ना और उसके बारे में लिखना हमारे भौतिक शरीर के अंदर की प्रक्रिया है।इसमें किसी टूल्स (काग़ज़, कलम) का कोई लेना देना नही है। जैसे जैसे युग परिवर्तित होते गए, इस आंतरिक प्रक्रिया का छीन होते चला गया और इसमें बहुत सारी अशुद्धियाँ आती गई इसलिए काग़ज़-कलम वाले लिखने की बाहरी प्रक्रिया की शुरुआत हुई।इसमें एक भूमिका अनेक प्रकार के युध की भी रही है जिसका उद्देश्य एक सभ्यता का दूसरे के ऊपर अपनी पैठ जमाना रहा है।यह पैठ बिना सामने वाले की मानसिक साक्षरता को दुर्बल बनाये असंभव सा है - उदाहरण के तौर पे बख़्तियार ख़िलजी का नालंदा विश्वविद्यालय को जलाना, औरंज़ेब जैसे अक्रान्ताओं के मानसिक आघात वाले कृत एवं ब्रिटिश शासन का 1853 में मैकॉले मिनट लाना। यह सब यही दर्शाता है की एक सभ्यता को समय के साथ बदलना ही पड़ता है और इसी बदलने की प्रक्रिया में लेखन-पढ़न की भी बदलती तस्वीर को अपनाना अति महत्वपूर्ण है।इसलिए लिखना साइंस भी है और आर्ट भी, आर्ट - आंतरिक गतिविधि है जो अनादि काल से चलती रही है; साइंस इसलिए क्योंकि घटते हुए मानसिक सामर्थ परिवेश में साइंस कॉज-इफ़ेक्ट के माध्यम से लेखन को अंतरिकता प्रदान करता है माध्यम अलग हैं केवल।


हर एक नागरिक के लिए लेखन-पढ़न एक जैविक उपहार के समान है। इसका उपयोग, एक संकुचित परिभाषा में, केवल अपने पदार्थवादी भोगों का अनुसरण करने मात्र से हमें बचना चाहिए। अपितु हमें इसका विस्तृत उपयोग सबसे पहले अपने अंदर के ब्रह्मनस्वरूप आत्मावलोकन तथा समाज और सभ्यता के उन नैतिक जड़ों की सिंचाई में परस्पर करने की जरूरत है। इसलिए लेखन ज़रूरी है, ठीक तरीक़े से करने की बात है बस, बिना बंदिशों के  




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